
नई दिल्ली. US-China-Russia Relation: क्या वैश्विक ताकतों का नया समीकरण आकार ले रहा है, जिसमें अमेरिका, चीन और रूस को मुख्य केंद्र मानकर बाकी देशों को हाशिये पर रखा जा रहा है? अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की हालिया विदेश नीति पर टिप्पणियों और प्राथमिकताओं को देखकर कुछ विशेषज्ञों को ऐसा ही प्रतीत हो रहा है। ट्रंप की सोच का केंद्रीय शब्द है “डील” सौदा। और जब बात आती है चीन और रूस जैसे देशों की, तो ट्रंप का उत्साह दोगुना हो जाता है। उन्हें लगता है कि वे ऐसे देशों के साथ भी सौदा कर सकते हैं जो आमतौर पर अमेरिका के लिए जटिल और टकरावपूर्ण माने जाते हैं।
रूस के साथ रिश्ते सुधारने की कोशिश: यूक्रेन युद्ध पर संभावित नरमी का संकेत?
न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, ट्रंप ने हाल ही में कहा कि वे रूस के साथ व्यापारिक संबंधों को सामान्य करना चाहेंगे। विदेश नीति विशेषज्ञों का मानना है कि यह बयान रूस पर पश्चिमी दबाव को कम करने की एक रणनीति हो सकती है-यूक्रेन युद्ध को खत्म करने की दिशा में पहला संकेत। हाल ही में ट्रंप और व्लादिमीर पुतिन के बीच दो घंटे लंबी फोन वार्ता हुई थी। ट्रंप ने इस बातचीत को “बहुत सकारात्मक’ज् करार दिया। इससे एक बार फिर संकेत मिला कि ट्रंप रूस को अमेरिका के संभावित साझेदार के रूप में देख रहे हैं, भले ही वह यूक्रेन के खिलाफ युद्धरत क्यों न हो।
चीन के प्रति नरमी: व्यापार युद्ध में तनाव कम करने की पहल
वहीं दूसरी ओर, ट्रंप चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से बात करने के लिए प्रयासरत हैं ताकि उनके कार्यकाल में शुरू हुए वैश्विक व्यापार युद्ध की तल्खियों को कम किया जा सके।
टाइम मैगजीन को दिए एक इंटरव्यू में ट्रंप ने अपनी विचारधारा कुछ इस तरह बयान की “हर कोई सौदा करना चाहता है। और मैं हूं एक भव्य, आकर्षक स्टोरज् जहां हर कोई आना चाहता है।’ज् इस बयान से स्पष्ट है कि ट्रंप द्विपक्षीय रिश्तों को सौदेबाजी की मानसिकता से देखते हैं, जिसमें नैतिक मूल्य, मानवाधिकार, या लोकतंत्र जैसी परंपरागत अमेरिकी नीतियों की तुलना में व्यक्तिगत मोल-तोल ’यादा अहम है।
तीन महाशक्तियों की परिकल्पना: क्या नई वल्र्ड ऑर्डर रच रहे हैं ट्रंप?
न्यूयॉर्क टाइम्स और अन्य अमेरिकी मीडिया संस्थानों ने आशंका जताई है कि ट्रंप का दृष्टिकोण महज़ लेन-देन तक सीमित नहीं है। वे भविष्य की एक त्रिध्रुवीय विश्व व्यवस्था की कल्पना कर रहे हैं, जिसमें अमेरिका, रूस और चीन तीन शक्ति-केंद्र बनते हैं। यह विचार ट्रंप के पहले के बयानों से मेल खाता है। उन्होंने कभी ग्रीनलैंड को डेनमार्क से खरीदने, कनाडा को अमेरिका में मिलाने और पनामा नहर को फिर से अमेरिकी नियंत्रण में लाने की बात कही थी- ये सभी बातें उनकी एक विस्तारवादी सोच को दर्शाती हैं।
ट्रंप की विदेश नीति बनाम परंपरागत अमेरिकी रुख
ट्रंप की वैश्विक नीति, परंपरागत अमेरिकी राष्ट्रपतियों से एकदम अलग रही है। उन्होंने अक्सर अमेरिका के पुराने सहयोगियों जैसे यूरोप, जापान और दक्षिण कोरिया की आलोचना की है, और अमेरिकी सैनिकों को दुनिया भर से वापस बुलाने की बात कही है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह रणनीति रूस और चीन को फायदा पहुंचाती है, जो दशकों से अमेरिका की वैश्विक सैन्य उपस्थिति को चुनौती देना चाहते हैं।
ट्रंप ने बार-बार पुतिन और शी जिनपिंग की प्रशंसा की है, उन्हें “स्मार्ट’ज् और “मजबूत नेता’ कहकर संबोधित किया है। यहाँ तक कि उन्होंने यूक्रेन को विभाजित करने और उसके खनिज संसाधनों पर कब्जा करने के विचार को भी समर्थन देने वाले संकेत दिए हैं। इसके साथ ही, ट्रंप नाटो जैसे गठबंधनों पर भी सवाल खड़े कर चुके हैं, जिसे यूरोप की सुरक्षा के लिए सबसे अहम माना जाता है।
भारत की स्थिति: ट्रंप की विश्वदृष्टि में भारत की क्या भूमिका है?
अब सबसे अहम सवाल-भारत कहां खड़ा है? जो बाइडन सरकार ने भारत को इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में एक प्रमुख साझेदार के रूप में देखा, खासकर चीन के प्रभाव को संतुलित करने के लिए। लेकिन ट्रंप की सोच में ऐसा कोई स्पष्ट संकेत नहीं दिखता कि भारत को वे रणनीतिक महत्व दे रहे हैं। अमेरिकी विशेषज्ञों और मीडिया का मानना है कि ट्रंप की वर्तमान विदेश नीति भारत जैसे देशों को हाशिये पर डाल सकती है, जो आने वाले वर्षों में अमेरिका के लिए भारी रणनीतिक नुकसान साबित हो सकता है।
ब्रुकिंग्स इंस्टीट्यूशन और कार्नेगी एंडोमेंट जैसे प्रतिष्ठित थिंक टैंक्स की रिपोर्टों में भी यह चिंता जताई गई है कि यदि अमेरिका भारत को एक विश्वसनीय साझेदार की तरह नहीं देखता, तो भारत-रूस या भारत-चीन समीकरणों में बदलाव संभव है, जो वाशिंगटन के लिए बेहद असुविधाजनक स्थिति होगी।
ट्रंप की सोच: लोकतंत्र नहीं, नेतृत्व की ‘शक्ति और ‘िनजता का पक्षधर
ट्रंप की विदेश नीति का मूल्यांकन करने पर यह सामने आता है कि वे लोकतांत्रिक मूल्यों, बहुपक्षीय समझौतों या वैश्विक संस्थाओं की तुलना में व्यक्तिगत नेतृत्व और सौदेबाजी की नीति को तरजीह देते हैं। वे अपनी विदेश नीति को सीईओ स्टाइल में चलाते हैं, जहाँ रिश्तों का आधार- व्यक्तिगत तालमेल, फायदे का सौदा, और ताकत की पूजा है। भारत, जिसकी पहचान लोकतंत्र, जनसंख्या बल, और तकनीकी उद्यमिता से होती है, उसे इस तिकड़ी (यूएस-चाइना-रसिया) की रणनीतिक सोच में स्पेस मिलना कठिन होता जा रहा है, खासकर तब जब अमेरिका का नेता वैश्विक गठबंधनों की जगह बिलेटरल डील्स को प्राथमिकता देता है।
विश्व शक्ति के नए समीकरण और भारत के लिए आगे की राह
डोनाल्ड ट्रंप विश्व राजनीति को एक ‘बोर्ड गेम की तरह देख रहे हैं, जिसमें कुछ गिने-चुने खिलाड़ी ही मूव करते हैं- बाकी केवल मोहरे हैं। भारत, जो अब तक अमेरिका का रणनीतिक साथी माना जाता था, वह इस नई सोच में हाशिये पर खिसकता दिख रहा है। भारत की विदेश नीति को अब पहले से सतर्क रहने की आवश्यकता है, क्योंकि यदि ट्रंप फिर से सत्ता में आते हैं, तो अमेरिका की प्राथमिकताएं पूरी तरह बदल सकती हैं। भारत को स्वतंत्र रणनीति, बहुध्रुवीय संवाद और क्षेत्रीय गठबंधनों पर फोकस करना होगा, ताकि वह किसी एक ध्रुव के अधीन न होकर, स्वयं एक शक्ति केंद्र बनकर उभरे।
शक्ति केंद्र बनने की रणनीति: भारत के पास क्या पूंजी है?
- जनसंख्या 140 करोड़+ (विश्व में सर्वाधिक)
- अर्थव्यवस्था 5वीं सबसे बड़ी, 2030 तक टॉप-3 में संभावित
- सैन्य बल: दुनिया की चौथी सबसे बड़ी सेना
- तकनीक: आईटी, स्पेस, डिजिटल भुगतान में अग्रणी
- सॉफ्ट: पॉवर योग, संस्कृति, लोकतंत्र, हिन्दी सिनेमा
इन सभी क्षेत्रों में भारत की स्थिति उसे आत्मनिर्भर वैश्विक खिलाड़ी बनने के लिए उपयुक्त बनाती है।
