
जयपुर. Rajasthan Holi Parv: राजसमंद जिले के खमनोर क्षेत्र में स्थित बड़ा भाणुजा गांव का फूलडोल महोत्सव, होली के रंगों के साथ एक विशेष धार्मिक और सांस्कृतिक पर्व बन चुका है। यह महोत्सव केवल रंगों का उत्सव नहीं, बल्कि प्रेम, सौहार्द और एकता का प्रतीक है, जो गांव के लोगों के दिलों को जोडऩे का कार्य करता है। सदियों से चली आ रही यह परंपरा हर साल भक्तों को न केवल अपनी आस्था की ओर आकर्षित करती है, बल्कि सामाजिक समरसता और रिश्तों को सहेजने का भी प्रेरणास्त्रोत बनती है।
लक्ष्मीनारायण के मंदिर में सजता है रंगों का संसार
यह महोत्सव खासकर होलिका दहन के अगले दिन मनाया जाता है। सुबह-सुबह गांववाले धुलंडी खेलते हैं और फिर स्नान करके दूल्हे की तरह सज-धज कर भगवान लक्ष्मीनारायण के मंदिर की ओर रुख करते हैं। यहां, मंदिर को भव्य तरीके से सजाया जाता है, और भगवान लक्ष्मीनारायण को चांदी की पालकी में विराजमान कर मंदिर चौक में लाया जाता है। फूलों और पत्तियों से वातावरण सुवासित हो उठता है, और भक्तगण यहां एकत्रित होते हैं। फिर, एक अद्भुत उल्लास के साथ महोत्सव का आरंभ होता है। भक्तों के चेहरे पर भक्ति और प्रेम का अद्भुत मिलाजुला रूप नजर आता है।
दूल्हे की भांति सजते हैं भक्त

इस महोत्सव का सबसे आकर्षक हिस्सा है भक्तों का अनूठा श्रृंगार और नृत्य। लोग इस दिन पारंपरिक परिधानों में सजते हैं। वृद्धजन धोती और कुर्ता पहनते हैं, वहीं युवा और मध्यवयस्क लोग कुर्ता-पायजामा और उस पर कोठी पहनते हैं। सिर पर पगड़ी, फतेहपेच, छोगा और आमली जैसी पारंपरिक सजावट उन्हें दूल्हे जैसा रूप प्रदान करती है। जब ढोल, मादल और थाली की गूंज मंदिर प्रांगण में गूंजती है, तो भक्त नृत्य करने लगते हैं। यह नृत्य कोई पारंपरिक लोकनृत्य नहीं बल्कि एक भावनाओं का संगम होता है, जिसमें लोग न केवल अपनी खुशी को व्यक्त करते हैं, बल्कि आपसी रिश्तों को प्रगाढ़ भी करते हैं।
भक्ति और रिश्तों का अद्भुत संगम
फूलडोल महोत्सव का नृत्य एक अनोखी विशेषता से भरा होता है। इसमें दो विपरीत दिशाओं से आते हुए भक्त एक-दूसरे के सामने आकर एक लय में थिरकने लगते हैं। यही वह क्षण होते हैं जब कई वर्षों से चली आ रही मनमुटाव की दीवारें पलभर में गिर जाती हैं। जो लोग पहले एक-दूसरे से नाराज होते हैं, वे नृत्य के दौरान एक-दूसरे से गले मिलकर अपनी पुरानी गलतफहमियों को भूल जाते हैं। यह दृश्य एक दूसरे के साथ मिलकर एकता, प्रेम और भाईचारे का संदेश फैलाता है।

शोक भंग की परंपरा
फूलडोल महोत्सव में एक और विशेष परंपरा जुड़ी हुई है, जिसे शोक भंग कहा जाता है। यदि किसी परिवार में वर्षभर में कोई सदस्य निधन हो जाता है, तो उस परिवार को इस महोत्सव में सम्मिलित करने के लिए समाजजन सुबह उनके घर जाते हैं। इस परंपरा का उद्देश्य शोक संतप्त परिवार को सांत्वना देना और उन्हें भावनात्मक समर्थन प्रदान करना है। उस परिवार को शाम को मंदिर में आकर ठाकुरजी के दर्शन करने के लिए आमंत्रित किया जाता है, और फिर सभी मिलकर सामूहिक प्रसादी ग्रहण करते हैं। इस प्रकार, समाज उस परिवार के शोक को कम करने का प्रयास करता है और उन्हें एक नई शुरुआत की उम्मीद प्रदान करता है।
आठ दिनों तक चलने वाला पाटोत्सव
फूलडोल महोत्सव के साथ-साथ यहां एक और प्रमुख आयोजन होता है, जिसे पाटोत्सव कहा जाता है। यह उत्सव होलिका दहन के अगले दिन से शुरू होकर आठ दिनों तक चलता है। इस दौरान भक्तगण फाग गीतों के साथ भगवान लक्ष्मीनारायण की भक्ति में लीन रहते हैं। संगीत और नृत्य के मिश्रण से यह उत्सव भक्तों को अपने-अपने जीवन में एक नई ऊर्जा और उमंग प्रदान करता है। यह आठ दिन का पाटोत्सव न केवल गांववासियों के लिए, बल्कि दूर-दूर से आए श्रद्धालुओं के लिए भी एक अनमोल अनुभव होता है।
समाज में प्रेम और एकता का संदेश
बड़ा भाणुजा का यह अनूठा महोत्सव केवल एक धार्मिक परंपरा का पालन नहीं करता, बल्कि यह समाज को एक गहरा मानवतावादी संदेश भी देता है। यह महोत्सव हमें यह सिखाता है कि हमें आपसी द्वेष और भेदभाव को छोडकऱ प्रेम, सौहार्द और एकता को अपनाना चाहिए। यही कारण है कि बड़ा भाणुजा के फूलडोल महोत्सव में रंगों, भक्ति और उल्लास के साथ-साथ समाज में एकता और समरसता का अद्वितीय संदेश भी समाहित है। “यह महोत्सव न केवल धार्मिक अनुष्ठान है, बल्कि यह समाज में प्रेम, विश्वास और भाईचारे की नयी राह पर हमें चलने का प्रोत्साहन देता है।”
सदियों से चली आ रही इस परंपरा का उद्देश्य केवल धार्मिक गतिविधियों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमें हमारे रिश्तों को सहेजने, आपसी मेलजोल को बढ़ाने और समाज में एकता बनाए रखने की प्रेरणा भी देता है। फूलडोल महोत्सव का यह रंगीन और भावनात्मक अनुभव, न केवल भक्ति का पर्व है, बल्कि यह एक शक्तिशाली सामाजिक और मानवतावादी संदेश भी है।
