
जयपुर. Rajasthan Politics: राजस्थान की राजनीति में गहरी गुटबाजी और विरोध की परंपरा रही है, जो समय-समय पर विभिन्न नेताओं के बीच संघर्ष को जन्म देती रही है। एक दौर था जब कांग्रेस के शीर्ष नेता, जैसे नेहरू और पटेल, खुद इस गुत्थी में उलझ गए थे। ऐसे कठिन दौर में, जय नारायण व्यास, माणिक्य लाल वर्मा, गोकुल भाई भट्ट और पंडित हीरालाल शास्त्री जैसे नेताओं ने कांग्रेस को एकजुट करने और रियासतों को मिलाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनमें से एक नाम, पंडित हीरालाल शास्त्री, था जो राजस्थान के पहले मुख्यमंत्री बने। 7 अप्रैल 1949 को उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली और राज्य की राजनीति को एक नई दिशा दी।
हीरालाल शास्त्री का जन्म और शुरुआती जीवन
हीरालाल शास्त्री का जन्म 24 नवंबर 1899 को जयपुर से लगभग 60 किलोमीटर दूर स्थित जोबनेर कस्बे में हुआ था। उनका जन्म एक साधारण किसान परिवार में हुआ था, और उनकी मां का निधन बचपन में हो गया था। लेकिन बावजूद इसके, उन्होंने अपनी शिक्षा को गंभीरता से लिया और अपनी तीव्र बुद्धिमत्ता के बल पर जयपुर स्टेट में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। 21 साल की उम्र में उन्होंने संस्कृत में शास्त्री की उपाधि प्राप्त की और तब से उनका नाम हीरालाल शास्त्री पड़ा। इस दौरान उन्होंने शिक्षक के रूप में कार्य किया, लेकिन फिर वे प्रशासनिक सेवा में शामिल हो गए।
प्रशासनिक सेवाओं से राजनीति की ओर कदम बढ़ाना
हीरालाल शास्त्री ने 21 वर्ष की आयु में राजस्थान की प्रशासनिक सेवा में कदम रखा और बहुत जल्दी गृह और विदेश सचिव जैसे महत्वपूर्ण पदों पर पहुंचे। इस दौरान उनका झुकाव राजनीति और स्वतंत्रता संग्राम की ओर बढ़ा, और उन्होंने प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा दे दिया, ताकि वे पूरी तरह से देश और समाज की सेवा में समर्पित हो सकें।
नेहरू-पटेल से संपर्क और राजस्थान की राजनीति में प्रवेश
जयपुर प्रजामंडल के प्रमुख, जमना लाल बजाज, के संपर्क में आने के बाद शास्त्री का राजनीतिक जीवन और भी तेज़ी से बढ़ा। बजाज ने शास्त्री को प्रजामंडल का सचिव नियुक्त किया, और उनके निधन के बाद शास्त्री ने इसकी पूरी जिम्मेदारी संभाली। इस दौरान उनका संपर्क नेहरू और पटेल जैसे बड़े नेताओं से हुआ, और उनकी कार्यशैली और नेतृत्व क्षमता ने पटेल को गहरे प्रभावित किया। वे स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में राजघरानों के विलय और कांग्रेस की एकता को लेकर कार्यरत थे, और उनकी यह भूमिका राजस्थान के लिए बेहद महत्वपूर्ण साबित हुई।
सरदार पटेल से समर्थन और मुख्यमंत्री का पद
राजस्थान के नए राज्य के मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में कई दावेदार थे, लेकिन अंततः सरदार पटेल के समर्थन के बाद हीरालाल शास्त्री मुख्यमंत्री बने। उनका शपथ ग्रहण 7 अप्रैल 1949 को हुआ। हालांकि, उन्हें विरोध का भी सामना करना पड़ा, जैसे जय नारायण व्यास, माणिक्य लाल वर्मा और गोकुल भाई भट्ट जैसे नेताओं से। पटेल का समर्थन उनके साथ था, लेकिन जब पटेल का निधन हुआ और कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव में पुरुषोत्तम दास टंडन ने जीत हासिल की, तो शास्त्री के विरोधियों ने उन्हें दबाव में लाने का प्रयास किया।
सीएम पद से इस्तीफा और समाज सेवा में समर्पण
नेहरू के साथ शास्त्री का मतभेद होने के बाद, उन्होंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। यह कदम उन्होंने अपने सिद्धांतों के अनुरूप उठाया, क्योंकि वे विवादों से बचना चाहते थे। इस्तीफे के बाद, शास्त्री ने अपनी राजनीति की दिशा बदल दी और समाज सेवा में अधिक सक्रिय हो गए। उन्होंने बेटियों की शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण कार्य शुरू किए।
बेटियों की शिक्षा को समर्पित वनस्थली विद्यापीठ
हीरालाल शास्त्री की व्यक्तिगत जीवन में सबसे बड़ा दुख उनकी बेटी शांता का आकस्मिक निधन था, जो महज 12 साल की उम्र में बीमारी से चल बसी। इस घटना ने उन्हें गहरे आघात पहुंचाया, लेकिन उन्होंने इससे उबरते हुए बेटियों की शिक्षा को लेकर अपनी पूरी ऊर्जा लगा दी। उन्होंने वनस्थली गांव में एक छोटा सा स्कूल शुरू किया, जो धीरे-धीरे एक बड़े शैक्षिक संस्थान के रूप में विकसित हुआ। आज का वनस्थली विद्यापीठ उसी सपने का परिणाम है, जो शास्त्री ने देखा था। यह संस्थान बेटियों को समर्पित है और भारत में एक प्रमुख आवासीय शिक्षा संस्थान बन चुका है।
शास्त्री ने संघर्षों और विपरीत परिस्थितियों का सामना किया
हीरालाल शास्त्री ने अपने जीवन में कई संघर्षों और विपरीत परिस्थितियों का सामना किया, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। उनकी दूरदर्शिता, नेतृत्व क्षमता और समाज सेवा की भावना ने उन्हें राजस्थान के पहले मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित किया। उनकी यादें आज भी राजस्थान और देश के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं, और उनका योगदान भारतीय राजनीति और शिक्षा के क्षेत्र में अमूल्य रहेगा।
